Wednesday, March 4, 2009

'बांग्लादेश राइफल्स' और बगावत के बीज

'बांग्लादेश राइफल्स' और बगावत के बीज

http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0902/28/1090228065_1.htm





संदीपसिंह सिसोदिया




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हाल ही में हुई बांग्लादेश राइफल्स की खूनी बगावत ने बरसों की अस्थिरता तथा दो साल के सैनिक शासन के बाद वापस लोकतंत्र के रास्ते पर लौटते बांग्लादेश और इसके संस्थापक मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना की राह में काँटे बिछाते हुए सुप्तावस्था में रह रहे एक बड़े पुराने दैत्य को जगा दिया है। दरअसल बगावत के बीज तो इस संगठन में बीडीआर के जन्म से बरसों पहले ही डल गए थे।

कभी यह संगठन अपने गौरवशाली और अलंकृत इतिहास के लिए जाना जाता था। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में अपने सैकड़ों जवानों और अधिकारियों की शहादत देने वाले बीडीआर को बांग्लादेश के सर्वोच्च सैन्य सम्मान 'बीर श्रेष्ठ' से दो बार नवाजा जा चुका है। इसके अलावा 8 'बीर उत्तम', 40 'बीर बिक्रम' और 91 'बीर पथिक' सम्मान इसके खाते में दर्ज हैं। बांग्लादेश राइफल्स 65 हजार सैनिकों के साथ देश का दूसरा सबसे बड़ा सशस्त्र अंग है।

बगावतों का इतिहास : बांग्लादेश में सैनिक सत्तापलट का एक लंबा इतिहास रहा है लेकिन इस बार के इस विद्रोह में राजनीतिक पृष्ठभूमि के कोई संकेत फिलहाल नहीं मिले हैं। इन घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बांग्लादेश की स्थिति कितनी अस्थिर है। 16 करोड़ से कुछ ज्यादा की आबादी का यह देश सन 2008 के अंत में दो साल के सैनिक शासन के बाद लोकतंत्र के रास्ते पर वापस लौटा है।



बांग्लादेशी राजनयिकों की मानें तो यह विद्रोह अचानक ही हो गया है, मगर इसने देश की छवि को नुकसान तो पहुँचाया ही है, साथ ही आर्थिक मंदी के इस दौर में निवेशकों का भरोसा भी इस देश से डगमगा गया है



भारी बहुमत से सत्ता में लौटीं शेख हसीना के लिए यह विद्रोह उनकी पहली, मगर कठिन कसौटी है। हसीना ने आश्वासन दिया है कि वे बीडीआर की माँगों पर विचार करेंगी। कम वेतन और काम की कठिन परिस्थितियों के कारण लंबे समय से बीडीआर जवानों के बीच नाराजगी थी। हाल की बगावत के कारण दूसरी सैन्य बैरकों में सुगबुगाहट के चलते हमेशा की तरह इस बार भी सैनिक सत्तापहरण की अफवाहों का बाजार गर्म है।

बीडीआर का इतिहास : ब्रिटिश शासन ने 1795 में पूर्वी भारत के स्थानीय लोगों को लेकर रामगढ़ बटालियन गठित की। बाद में इसका आधुनिकीकरण कर और बड़े क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंपकर इसे बंगाल मिलेट्री पुलिस (1891-1919) में परिवर्तित कर दिया गया। इस दौरान इसे ढाका, दुमका और गंगटोक क्षेत्रों में तैनात किया गया था। 1892 में इसे ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के नाम से जाना गया और तत्कालीन भारत में चल रहे स्वाधीनता संग्राम के चलते इसे 1920 में भंग कर दिया गया। भारत-पाक विभाजन के पश्चात पूर्वी पाकिस्तान की सीमाओं की रक्षा की जिम्मेदारी एक बार फिर ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स को दे दी गई।

1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स ने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ बगावत कर दी और बांग्लादेश के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस लड़ाई में इस संगठन के 817 जवान व अधिकारी मारे गए थे। बांग्लादेश की स्थापना के बाद 3 मार्च 1972 को इस संगठन को 'बांग्लादेश राइफल्स' (बीडीआर) के नाम से जाना जाता है।

इसका इतिहास देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि आखिर इस बार ऐसा क्या हो गया कि अनुशासन की जगह हुक्मउदुली ने ले ली और सलामी के बजाय अपने ही शीर्ष अधिकारियों को गोली मार दी गई। इस बार असंतोष इतना ज्यादा था कि मारे गए लोगों में बीडीआर के प्रमुख मेजर जनरल शकील अहमद तथा उपप्रमुख भी शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि बीडीआर के सैनिकों ने बगावत कर 70 से अधिक अधिकारियों को मार डाला तथा कई अधिकारी अभी भी लापता हैं।

सुनियोजित विद्रोह : यह सैन्य विद्रोह नियोजित लगता है। इस विद्रोह में बाल-बाल बचे अधिकारियों का कहना है कि यह विद्रोह पूरी साजिश के साथ किया गया और ऐसे समय किया गया जब पूरे बांग्लादेश से उच्च अधिकारी बीडीआर की बैठक के लिए ढाका आए थे।

हालात इतने खराब कभी नहीं रहे जितने इस बार थे। सालों से सुधार की बाट जोहते बीडीआर के जवानों ने वेतन और काम करने के वातावरण के मुद्दों को लेकर सशस्त्र विद्रोह कर दिया था। वे सुनियोजित तरीके से ढाका में सेना के बैरकों में घुस आए थे और कई लोगों को बंधक बना लिया था। इनका निशाना स्पष्ट तौर पर बीडीआर के शीर्ष पदों पर बैठे सेना के अधिकारी थे।

शायद इस अर्धसैनिक बल के जवानों को यह बात भी कहीं न कहीं अखर रही थी कि लगभग सभी शीर्ष पदों पर बांग्लादेश सेना के अधिकारियों का कब्जा है। बीडीआर के जवान छुट्टियों की समस्या, खराब भोजन, कम वेतन-भत्ते और संसाधनों की कमी की शिकायतें लंबे समय से इन अधिकारियों से कर रहे थे।

इसके अलावा एक और कारण यह बताया जा रहा है कि शेख हसीना के पदग्रहण करने के बाद बीडीआर के शीर्ष अधिकारियों ने जब नवनियुक्त प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी तब भी बीडीआर के जवानों की माँगों के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया गया जिससे भी तनाव और गहराया।

अंतरराष्ट्रीय छवि खराब : बांग्लादेशी राजनयिकों की मानें तो यह विद्रोह अचानक ही हो गया है, मगर इसने देश की छवि को नुकसान तो पहुँचाया ही है, साथ ही आर्थिक मंदी के इस दौर में निवेशकों का भरोसा भी इस देश से डगमगा गया है। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि निचले स्तर पर बगावत की इतनी बड़ी योजना बनी और किसी को इस बात की भनक तक नहीं लगी?

भारत पर असर : पड़ोसी देश भी इस घटनाक्रम पर सतर्क निगाह रख रहे हैं। भारत जैसे मजबूत देश के लिए उसके पड़ोस में एक और अस्थिरता भविष्य में आने वाली मुसीबतों की ओर इशारा कर रही है। श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ अंतिम सैन्य कार्रवाई के चलते आशंका जताई जा रही है कि बचे-खुचे 'तमिल टाइगर' बचने तथा फिर संगठित होने के लिए तमिलनाडु में पनाह ले सकते हैं। वहीं पाकिस्तान-अफगानिस्तान में तालिबान भी एक बार फिर सिर उठा रहा है।

मनोवैज्ञानिक कारण : सिर्फ बांग्लादेश ही नहीं भारत, कंबोडिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी जवानों द्वारा अधिकारियों को गोली मार देने की घटनाएँ पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी हैं। सिर्फ सैन्य ही नहीं बल्कि निजी क्षेत्रों में भी यह आक्रोश किसी न किसी रूप में सामने आता है।

हाल ही में अमेरिका में आईटी क्षेत्र में कार्यरत भारतीय मूल के एक सीईओ तथा कंपनी उपाध्यक्ष को नौकरी से निकाले गए कर्मचारी द्वारा गोली मार दी गई। इस आधार पर कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निचले स्तर पर कार्यरत कर्मचारियों की उपेक्षा बहुत ही घातक सिद्ध हो सकती है। यह समस्या सिर्फ किसी देश की नहीं बल्कि सार्वभौमिक बन चुकी है। आर्थिक मंदी के इस दौर में यह समस्या आने वाले समय में और विकराल रूप धारण कर सकती है।

इस समस्या पर कोई ठोस वैश्विक कार्ययोजना बननी चाहिए जिससे कि इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

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