Wednesday, March 4, 2009

हमारी बर्बादी में भी वित्तीय फर्मों ने काटी चांदी

हमारी बर्बादी में भी वित्तीय फर्मों ने काटी चांदी
बड़े निवेश बैंकों के विदेशी मुद्रा काउंटर पिछले कई सालों से मोटी कमाई कर रहे हैं। बता रहे हैं

ए. वी. राजवाडे / March 04, 2009

http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=15303




ब्रिटेन के प्रमुख समाचार पत्र फाइनैंशियल टाइम्स के 5 फरवरी 2009 के अंक में एक पृष्ठ पर दो दिलचस्प शीर्षक दिखाए दिए।

इनसे साफ-साफ जाहिर होता है कि वित्तीय बाजारों और असली अर्थव्यवस्था के बीच जोखिम तथा इनाम के बीच कैसे संबंध है। स्पेशल एफएक्स यानी विशेष विदेशी मुद्रा ऐसी परिसंपत्ति है जो उतार-चढ़ाव से फलती-फूलती है।

बड़े निवेश बैंकों के विदेशी मुद्रा काउंटर पिछले कई सालों से इससे मोटी कमाई कर रहे हैं। और अमेरिकी कंपनियों की कमाई पर मुद्रा बाजार के इसी उतार-चढ़ाव का असर पड़ा है। अक्सर आप वित्तीय बाजार में मोटा मुनाफा कमा सकते हैं और इसके लिए किसी बड़ी प्रतिभा या विश्लेषण की जरूरत नहीं है।

लंदन टाइम्स में पिछली 23 जनवरी को छपी एक रिपोर्ट में फ्रांस के बैंक सोसियाते जेनेराल का उदाहरण दिया गया है। इस बैंक का अपने इतिहास में सबसे अच्छा कारोबारी दिवस 11 सितंबर 2001 का वह दिन था जब न्यू यॉर्क और वाशिंगटन में आतंकवादी हमले हुए थे।

जाहिर है उस दिन बैंक को शेयर बाजार, खास तौर से बीमा और विमानन कंपनियों के शेयरों, में शॉर्ट के जरिए पैसा कमाने के लिए किसी खास प्रतिभा की जरूरत नहीं थी। आपको दरकार थी तो सिर्फ पूंजी की जो सोसियाते जेनेराल के पास थी।

2007 के शुरू में 7 अरब डॉलर गंवाने वाले जेरोम कर्वाइल के लिए 7 जुलाई 2005 का वही मनहूस दिन खुशकिस्मती भरा था जिस दिन लंदन में बम धमाके हुए। रिपोर्ट से यह तो पता नहीं चलता है कि कर्वाइल ने इन दो दिनों में कितनी कमाई की।

अपने कारोबार में हेज फंड काफी छिपाते हैं पर निश्चित ही उन्होंने भी इन दोनों दिन मोटी कमाई की। इस तरह के भारी मुनाफे से वित्तीय और असली अर्थव्यवस्था में भरपाई के स्तर पर भारी-भरकम असंतुलन पैदा हो गया है।

आखिर कब तक कोई समाज सौदेबाजों और सटोरियों को उन मेहनतकश उद्यमियों की तुलना में पुरस्कार देता रहेगा जो न केवल उद्यम लगाते हैं बल्कि लोगों को सीधे रोजगार देते हैं, असली अर्थव्यवस्था के उत्पादन में योगदान देते हैं और समाज के कल्याण के लिए काम करते हैं।

अक्सर दलील दी जाती है कि सट्टेबाजी बगैर धेले का खेल है। मोटे तौर पर यह कीमतों में उतार-चढ़ाव के कारण होने वाले फर्क से पैसा कमाने का जरिया है, जिसमें किसी को जो भी फायदा होता है, वह किसी का नुकसान होता है। निश्चित ही यह सच है लेकिन वित्तीय अर्थव्यवस्था के लिए नहीं।

व्यावहारिक तौर पर हर बैंक ने साल दर साल कारोबारी मुनाफा दर्ज किया है। एक अपवाद वर्ष 2008 था जिसमें बैंकों के कारोबारी खातों में भारी नुकसान दर्ज हुआ। इसका कारण मुख्य तौर पर खुद वित्तीय प्रणाली की अति है। लेकिन ये नुकसान अंतत: समाज द्वारा ही उठाए जा रहे हैं। किसी बैंकर ने इतना नुकसान नहीं उठाया है।

वित्तीय बाजारों के कामकाज को लेकर एक और कहानी है। यह माना जाता है कि वे खुद से ही कुछ सुधार करेंगे। यह बात सही है मगर लंबी अवधि के लिहाज से। आमतौर पर लोगों में भेड़चाल होती है और अक्सर रुझान के हिसाब से भी सभी लोग चलने लगते हैं। ऐसे में अस्थायी तौर पर देखें तो संपत्तियों की गड़बड़ कीमतें काफी खतरनाक हो सकती हैं।

मशहूर अर्थशास्त्री कीन्स ने कु-मूल्यों पर एक टिप्पणी की है जो काफी चर्चित है। कीन्स का लंबी अवधि पर गड़बड़ कीमतों के बारे में कहना है: खिलाड़ियों के तटस्थ रहने से कहीं ज्यादा बाजार लंबे समय तक बिना तर्क के चलता रह सकता है। जॉर्ज सोरोस ने भी इस पर टिप्पणी की है कि बाजार कैसे काम करते हैं। उनकी टिप्पणी है-रिफ्लेक्सिबिलिटी।

उनका तर्क है कि बुनियादी तत्व उम्मीदों को प्रभावित करते हैं जो कि नतीजे में मूल्यों पर असर डालती हैं। लेकिन अगर कीमतों में परिवर्तन चलता रहता है तो उम्मीदें भी उसी तरह झूलती रहती हैं और शायद तब तक ऐसा चलता है जब तक उम्मीदों की झंकार रुक नहीं जाती।

1910 की शुरुआत में कीन्स ने निवेश संबंधी फैसलों के संदर्भ में उम्मीदों, उपेक्षा और अनिश्चितताओं की भूमिका के बारे में संकेत किया है। क्रेडिट डेरिवेटिव (सीडी) में आधुनिक बैंकों द्वारा उठाए गए भारी घाटे से यह सब पूरी तरह साफ हो जाता है। अमेरिकी कांग्रेस और ब्रिटेन की संसद ने हाल के सप्ताहों में इस कर्ज संकट के बारे में आला बैंकरों को तलब किया उनसे गहरी पूछताछ की।

क्रिस्टोफर कार्ल्डवेल ने फाइनैंशियल टाइम्स में लिखा है, 'समस्या यह नहीं है कि वे दूसरों को कष्ट पहुंचाने वाले दुष्ट थे बल्कि वे नासमझ थे।' अगर यही सच्चाई है तो समस्या यह है कि ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो बैंकरों की ईमानदारी और अकलमंदी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं और मान लेते हैं कि पैसे की जानकारी होने से बैंकर कुछ ज्यादा ही ज्ञानवान हैं।

बैंकरों की बुध्दिमानी पर भरोसा किया जाता है, यह बात अमेरिका के एक और उदाहरण से साफ होती है। यह उदाहरण है सर ऐलन स्टैनफोर्ड का जो टेक्सस के अरबपति और क्रिकेट के मशहूर प्रमोटर हैं। इनके बैंक में जमा लोगों की गाढ़ी बचत के कम से कम 8 अरब डॉलर डूब गए हैं। वे जमाकर्ताओं को एक पैसा भी वापस नहीं कर पाए। सर ऐलन का बैंक सीडी दर से दोगुनी दर पर लोगों को रिटर्न दे रहा था। इस कारण भोलेभाले, या यूं कहें लालची, जमाकर्ता इनके इस प्रलोभन में फंस गए।

इन सब घोटाले से बड़ा है मैडॉफ का फर्जीवाड़ा। इस फर्जीवाड़े से अमेरिकी नियामकों की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। दोनों मामलों में काफी चीजें समान हैं। बाहरी विश्लेषक इतने रिटर्न को लेकर आशंकित थे। क्योंकि इन फर्मों पर निजी हस्तियों का दबदबा था और इनका ऑडिट करने वाली फर्में भी कोई बहुत मशहूर नहीं थीं।

शायद नसीम तालिब ही वह शख्स थे जिन्होंने हालात को बिल्कुल सटीक ढंग से भांप लिया था और यह भी महसूस कर लिया था कि तस्वीर कितनी बदतर हो जाएगी। उन्होंने कहा था, 'आदमी की फितरत होती है कि वह हर उस बात पर भरोसा कर लेता है, जो आप कहते हैं, बशर्ते कि आप मामूली सी भी हिचकिचाहट या शुबहे की गुंजाइश उसके सामने जाहिर न होने दें।

तरीका यह है कि अपनी बात आप एकदम स्वाभाविक लहजे में उसके सामने रख दें तो बात बन जाएगी।' अगर इसी को आईना बनाएं या इसे बुनियाद मानें तो न तो सर ऐलन और न ही मैडॉफ इसमें चूके। दोनों ने ही इसी जुमले को अमली जामा पहनाते हुए बड़ी सफाई के साथ शातिरों को भी बेवकूफ बना दिया।

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