Wednesday, July 31, 2013

प्रेमचंद और अमर्त्य सेन

प्रेमचंद और अमर्त्य सेन

Wednesday, 31 July 2013 10:09

शंभुनाथ 
जनसत्ता 31 जुलाई, 2013: प्रेमचंद और अमर्त्य सेन दो भिन्न युगों के बुद्धिजीवी हैं। दोनों को साथ रख कर देखना कुछ विचित्र लगेगा। फिर भी इस समानता की ओर दृष्टि जानी चाहिए कि दोनों ने अपने लेखन में भारत के गरीब और वंचित लोगों का प्रश्न उठाया है। 'उपनिवेश' में गरीब बढ़ रहे थे। आज 'राष्ट्र' में भी उभरती अर्थव्यवस्था के बावजूद गरीबी रेखा के नीचे तीस करोड़ लोग हैं। ये बुरी दशाओं में जी रहे हैं। इनके हालात से रूबरू होने के बाद ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की एक किताब आई है 'एन अनसर्टेन ग्लोरी: इंडिया ऐंड इट्स कंट्राडिक्शन्स'। इन्होंने आर्थिक वृद्धि पर हो रही चर्चाओं के बीच विषमता और गरीबी के मुद्दों पर फोकस किया है। विस्मय हो सकता है कि इस पुस्तक में शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित और राजनीतिक चेतना से दूर गरीबों को लेकर लगभग वही चिंताएं हैं, जो प्रेमचंद के लेखन में हैं। 
प्रेमचंद (1880-1936) का साहित्य औपनिवेशिक समय का है। वे लिखते हैं, ''अंग्रेजी राज में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और होती जा रही है, उतनी समाज के और किसी अंग की नहीं।... रोग, प्लेग, हैजा, शीतला उनके नौजवानों को हरी-भरी और लहलहाती जवानी में दुनिया से उठाए लिए चले जा रही है।... माता के पास केवल इतना वस्त्र है, जितने से वह घूंघट काढ़ सके, धोती चाहे ठेहुने तक ही क्यों न खिसक जाए।'' उनके पूरे कथा साहित्य में गरीब केंद्र में हैं। 
प्रेमचंद ने ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की तरह भारत के गरीब और वंचित लोगों के लिए चिकित्सा और शिक्षा के मुद्दे उठाए। इस तरफ भी ध्यान खींचा कि उपनिवेशवाद गरीबों की संख्या बढ़ा रहा है। वे यह भी दिखाते हैं कि वंचित आखिरकार वंचित क्यों हैं। कई बार लगता है कि उपर्युक्त पुस्तक में 'विकास' और इससे वंचित लोगों के अंतर्विरोध पर फोकस दरअसल भीतर से दी जा रही एक चेतावनी है। वैश्वीकरण के झूले में पेंगे भरते हुए गरीबों पर बहस आज फैशन है। इस तरह के काम वैश्वीकरण के 'सेफ्टी वाल्व' हैं।  
इन स्थितियों में समझा जा सकता है कि प्रेमचंद का क्या महत्त्व है। उन्होंने 1919 में सवाल किया था, ''क्या यह शर्म की बात नहीं है कि जिस देश में नब्बे फीसद आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आंदोलन, खेती का कोई विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। आपने सैकड़ों स्कूल और कॉलेज बनवाए, यूनिवर्सिटियां खोलीं और अनेक आंदोलन चलाए, मगर किसके लिए?'' उनके इस सवाल में 'गरीब' किसान एक ठोस आकार ले लेता है। 
दूसरी बात, उनका सवाल राष्ट्रीय आंदोलन के क्षमतावान हो रहे कर्णधारों से है, 'राष्ट्र' से है। सोचो, किसके लिए यह शिक्षा और ये आंदोलन हैं। आज गरीबों के लिए सिर्फ खाद्य सुरक्षा काफी है या इन्हें शिक्षा, चिकित्सा और जीने के लिए स्वच्छ पर्यावरण भी चाहिए? यह सवाल जितनी गंभीरता से अमर्त्य सेन उठाते हैं, प्रेमचंद भी उठाते हैं। उनके कई कथा-चरित्र शिक्षा, स्वास्थ्य-सुविधाएं और पर्यावरण चेतना लेकर औपनिवेशिक मार से जर्जरित गांवों में जाते हैं, उनमें प्रेमशंकर (प्रेमाश्रम), अमरकांत (कर्मभूमि) और मालती (गोदान) अन्यतम हैं। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इन सीमित कोशिशों से कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि यह बड़े विजन और सामाजिक दायित्व का मामला है। 
प्रेमचंद ने 1909 में पिछड़े इलाकों में अपने समय की आरंभिक शिक्षा का जो चित्र खींचा है, वह आज भी थोड़े फर्क से कई जगहों पर दिख सकता है, ''एक पेड़ के नीचे जिसके इधर-उधर कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है और शायद वर्षों से झाड़ नहीं दी गई, एक फटे-पुराने टाट पर बीस-पच्चीस लड़के बैठे ऊंघ रहे हैं। सामने एक टूटी हुई कुर्सी और पुरानी मेज है। उस पर जनाब मास्टर साहब बैठे हुए हैं। लड़के झूम-झूम कर पहाड़े रटे जा रहे हैं। शायद किसी के बदन पर साबित कुर्ता न होगा।... हमारी आरंभिक शिक्षा के सुधार और उन्नति के लिए सबसे बड़ी जरूरत योग्य शिक्षकों की है।'' आज शिक्षक की योग्यता महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह और कुछ करे, पढ़ाता कम है। 
अमर्त्य सेन बुनियादी शिक्षा के उच्च मान पर उसी तरह बल देते हैं, जिस तरह प्रेमचंद देते थे। वे इस पर भी चिंता व्यक्त करते हैं कि इस समय विश्व के उच्च मान के टॉप के दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। हम जानते हैं, इस दशा में भी भारत में दंभ से भरे शिक्षाविदों और शिक्षा में कुत्सित राजनीति की कमी नहीं है। क्या ऐसे शिक्षा-संसार से मिले खुदगर्जी और काइयांपन के गुणों की वजह से ही आज की राजनीति ऊपर से खूब हॉट और भीतर से खोखली है? प्रेमचंद ने बार-बार कहा, यह शिक्षा शिक्षा नहीं है। 
वैश्वीकरण के दौर में जिस तरह भारत के गरीबों के लिए चिंताएं की जा रही हैं और राहत योजनाएं दिख रही हैं, वे नई जनतांत्रिक राजनीति के हरावल जैसी लग सकती हैं, क्योंकि वैश्वीकरण को एक मानवीय चेहरा चाहिए। दरअसल, जिस तरह औपनिवेशिक काल का उदारीकरण आध्यात्मिक चेहरे के साथ था, आज का नव-उदारीकरण मानवीय चेहरे के साथ है। 
उदारवादी रवींद्रनाथ की आध्यात्मिकता देख कर प्रेमचंद कुछ निराश-से थे, ''बुद्धि और आध्यात्मिकता की यह खींचतान वर्तमान आंदोलन के रास्ते में भयानक रुकावट होगी और जब उसके समर्थक रवींद्रनाथ जैसे दूरदर्शी, गहरी नजर वाले लोग हैं तो इस रुकावट को रास्ते से हटाना आसान साबित न होगा।'' यही बात वैश्वीकरण के मानवीय मुखौटे बनाने वाले बुद्धिजीवियों के बारे में कही जा सकती है। 
प्रेमचंद और अमर्त्य सेन दोनों ने यह मुद्दा उठाया है कि भारत में मध्यवर्गीय लोगों की संवेदना संकुचित क्यों है। दूसरे कई देशों की तुलना में दिमागी खुलापन कम है, सिर्फ इतनी बात नहीं है। प्रेमचंद मध्यवर्ग की तरह-तरह से असलियत खोलते हैं, ''वह झूठे आडंबर और बनावट की जिंदगी का, इस व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतियोगिता का इतना प्रेमी हो गया है कि उसकी बुद्धि में सरल जिंदगी का विचार आ ही नहीं सकता।... काश ये यूनिवर्सिटियां न खुली होतीं; काश आज उनकी र्इंट से र्इंट बज जाती; तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती।... हमारा तजरबा तो यह है कि साक्षर होकर आदमी काइयां, बदनीयत, कानूनी और आलसी हो जाता है।'' 

प्रेमचंद के कई पढ़े-लिखे कथा-चरित्र गरीब और वंचित लोगों के बीच सेवा के लिए सक्रिय होते हैं। वे खुदगर्ज नहीं, सामाजिक हैं। अमर्त्य सेन सरकारी कानून से एकमात्र आशा न रख कर जनसक्रियता का मुद्दा उठाते हैं। वे इस मामले में कहते हैं, ''एक तरफ राष्ट्र अभी तक करोड़ों लोगों के जीवन में न्यूनतम जन-सुविधाएं नहीं पहुंचा पाया है, दूसरी तरफ समाज का एलीट और शिक्षित मध्यवर्ग निर्लिप्त और सहनशील है।'' कभी भ्रष्टाचार, बलात्कार और हिंसा की घटना पर अचानक जन-आक्रोश दिख जाता हो, पर आमतौर पर यह वर्ग दूसरे पर अन्याय देख कर उत्तेजित नहीं होता और आत्मसेवा में डूबा रहता है। 
पिछले साल एक बार देश का आधे से ज्यादा हिस्सा देर तक अंधकार में डूब गया था। इसे लेकर महानगरों में गुस्सा सड़कों पर आ गया। क्या इसको लेकर कभी भद्र नागरिक समाज ने प्रदर्शन किया कि देश के तीस करोड़ लोग पूरे साल ही बिल्कुल अंधकार में जीते हैं? जब तक अपना स्वार्थ नहीं है, मुंह में कोई 'आवाज' नहीं है। आज पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ने पर भौंहें तन जाती हैं। इस पर गुस्सा नहीं आता कि कृषकों को उपज की लागत नहीं मिल पा रही है। एक विपत्ति और है, चीन और कोरिया का माल भारतीय बाजार में आने से भारत में छोटे घरेलू व्यवसायों की भयावह तबाही हुई है। भारत कहीं समृद्ध हो रहा हो, पर वह कई जगहों पर उजड़ रहा है। ऊपर से मनोरंजन उद्योग रंगीन जीवन की चमक-दमक दिखाता है।
प्रेमचंद अपने जमाने के मीडिया को भी संदर्भ बनाते हैं, ''जिनके पास न खाने को अन्न है और न पहनने को वस्त्र, वह ब्राडकास्टिंग सुन कर अपना मनोरंजन न करेंगे, तो कौन करेगा?'' उस जमाने में रेडियो के फिल्मी गाने खूब सुने जाते थे। प्रेमचंद ने अपने दौर के बारे में लिखा था, 'यह समय राष्ट्र के निर्माण का समय है।' क्या वर्तमान समय 'राष्ट्र' के विघटन का है? क्या भारत में बढ़ती विषमता राष्ट्र की व्यर्थता का चिह्न है? मध्यवर्ग को जहां असहिष्णु होना चाहिए, वहां वह निर्लिप्त है और जहां सहिष्णु होना चाहिए वहां उसमें हिंसात्मक असहिष्णुता है। 
ये प्रेमचंद हैं, जो शिक्षा और चिकित्सा के अलावा सांस्कृतिक सुधार पर जोर देते हैं। वे मानसिकता बदलने के लिए कहते हैं। वे कट्टरवाद का विरोध करते हुए बड़े दुख से कहते हैं, ''अछूत, दलित, हिंदू, ईसाई, सिख, जमींदार, व्यापारी, किसान, स्त्री और न जाने कितने विशेषाधिकारों के लिए स्थान दिया जाएगा। राष्ट्र का अंत हो गया।... मुसलमान जिधर फायदा देखेंगे उधर जाएंगे। सभी दल अपनी-अपनी रक्षा करेंगे। राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा?'' 
क्या लगता है कि यह राष्ट्र की वर्तमान दशा पर बयान नहीं है? प्रेमचंद के समय उपनिवेशवाद राष्ट्रीय भावना पर संकट पैदा कर रहा था। आज वह काम वैश्वीकरण कर रहा है। साम्राज्य से राष्ट्र का बाहर निकलना पहले से ज्यादा मुश्किल हो उठा है। इसलिए राष्ट्र के अंत का वैसा ही खतरा है, जैसा प्रेमचंद देख रहे थे।
अमर्त्य सेन वैश्वीकरण के समर्थन में बोलते हुए भीतर से जो भी प्रश्न उठाते हैं, वे निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी किताबें 'हैपी इंडिया' की भारत-विरुदावलियों से अलग हैं। 
स्वाभाविक है कि अमर्त्य सेन वैश्वीकरण में साम्राज्यवाद नहीं देखते। वे प्रेमचंद की तरह मध्यवर्ग को उसके अंतर्द्वंद्वों के साथ नहीं देखते। उसे काट कर सीधे कॉरपोरेट घरानों पर भरोसा करते हैं या वंचित वर्गों का पक्ष लेते हैं। वे गरीबों और वंचितों का पक्ष लेते हैं, क्योंकि भविष्य में कॉरपोरेट समाज के हितों पर खतरा आत्मलिप्त और अंतर्विभाजित मध्यवर्गों से नहीं, गरीबों और वंचित लोगों से है। 
कहा जा सकता है कि अमर्त्य सेन का सोच भय का अर्थशास्त्र है, स्वाधीनता का अर्थशास्त्र नहीं। वे विषमता और बौद्धिक पतन की वजहों में नहीं जाते। वे भारत छोड़ कर अंतत: अमेरिका के टॉप विश्वविद्यालयों में पढ़ाने चले जाते हैं। वहीं बस जाते हैं। भारत अक्सर आते हुए भी ज्यादातर वहीं से भारत को देखते हैं। अमर्त्य सेन ने रवींद्रनाथ से अंतर्दृष्टि ली थी। 'पश्चिम से भौतिकता, भारत से आध्यात्मिकता' एक पुराना बौद्धिक टॉनिक है। उसका नया रूप है- वैश्वीकरण चाहिए, वंचित वर्गों के लिए मानवीय चिंताओं के साथ। 
प्रेमचंद कभी विदेश नहीं जा सके। वे यूरोप के बड़े लेखकों और आइंस्टीन से नहीं मिल सके। उन घटाओं से दूर रह कर उन्होंने भारत के गरीब और वंचित लोगों के बारे में जो सोचा, स्वप्न देखा और लिखा, वह अमर्त्य सेन की चिंताओं से कहां कम है, मुझे समझना अभी बाकी है। 
क्या हम प्रेमचंद के कथा साहित्य से आज की स्थितियों को समझने का विजन पा सकते हैं? इसने एक समय स्वाधीनता आंदोलनों को प्रेरित किया था। इसकी वजह सिर्फ उनका लेखन नहीं है, उनका जीवन भी है। वे कभी साम्राज्यवादी आकर्षणों में नहीं फंसे। उन्होंने जो लिखा, उसे जिया। उन्होंने साहित्य को अपने जीवन में ऊंचा स्थान दिया तो उसके लिए सरकारी नौकरी, रायसाहबी और अलवर महाराजा का दरबार भी छोड़ा। उनकी कृतियां भारतीय पीड़ा, प्रतिरोध और ट्रेजडी का महान दस्तावेज हैं। उनका लेखन हिंदुस्तान के बनने की कहानी है।

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1 comment:

Bijaya said...

Gandhi was sergeant major in British army. Churchill had said 'if there would have been three-four more Gandhi’s were born in India we could have ruled that country for few more centuries.” The image of Gandhi was created by the British and its allies, for cover-up of the “gallant” excuse, to leave India. Gandhi always opposed freedom fighters; he strongly opposed Netaji, Bhagat Singh etc. Nehru used to call himself an Englishman. Both Gandhi & Nehru are the creation of British Empire. Gandhi openly supported British in Second World War (non-violence?). Doesn't this prove that his “Ahimsa” was nothing but farce? His Ahimsa was to prevent any action against his subjects and for the British only.